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August 03, 2025

क्या भारत का कानून हमें आत्मरक्षा में जान लेने की इजाज़त देता है?

टॉर्ट में उद्देश्य और द्वेष
📘 क्या भारत का कानून हमें आत्मरक्षा में जान लेने की इजाज़त देता है?
⚖️ स्व-रक्षा का मूल अधिकार (Section 34–35 ,BNS)

भारत का हर नागरिक अपनी जान, शरीर, और संपत्ति की रक्षा कर सकता है — चाहे वह खुद की हो या किसी और की।

⚖️ क्या पागल या नशे में व्यक्ति पर भी बचाव का हक है? (Section 36, BNS)

अगर हमला करने वाला मानसिक रूप से अस्वस्थ है या नशे में है, तो भी बचाव का पूरा हक़ बना रहता है।

⚖️ कब नहीं मिलती आत्मरक्षा की छूट? (Section 37, BNS)

जब हमला किसी सरकारी अधिकारी द्वारा किया गया हो, अच्छे विश्वास में, और हम पुलिस की मदद ले सकते हैं — तब जरूरत से ज़्यादा नुकसान करना अपराध हो सकता है।

⚖️ कब है जान लेने का अधिकार? (Section 38, BNS)

अगर कोई जानलेवा हमला करता है,बलात्कार, अपहरण या तेज़ाब फेंकने की कोशिश करता है — तो आप उसे मार भी सकते हैं। ⚠️ लेकिन केवल उतनी ही शक्ति प्रयोग करें जितनी जरूरी हो।

⚖️ जानलेवा न हो, तो...? (Section 39, BNS)

यदि हमला जानलेवा नहीं है, तो हमलावर को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता — बस उचित प्रतिरोध करना पर्याप्त है।

⚖️ रक्षा कब शुरू और कब खत्म होती है? (Sections 40 & 43, BNS)

जैसे ही खतरे की आशंका शुरू हो, आत्मरक्षा शुरू हो सकती है — और तब तक जारी रहती है जब तक खतरा बना रहे।

⚖️ संपत्ति की रक्षा में मृत्यु तक का अधिकार? (Section 41, BNS)

यदि डकैती, घर में घुसपैठ, या आगजनी हो रही है — तो हमला करने वाले की जान लेना भी कानूनन वैध है।

⚖️ जब कोई निर्दोष बीच में हो? (Section 44, BNS)

अगर हमलावरों को रोकते समय कोई मासूम व्यक्ति घायल हो जाए — तब भी अगर बचाव के अलावा कोई विकल्प नहीं था, तो वह अपराध नहीं माना जाएगा।


July 29, 2025

जब सरकार करे मनमानी, तब रिट बनती है लगाम!

टॉर्ट में उद्देश्य और द्वेष 📘 "रिट" एक संवैधानिक हथियार है जो नागरिकों को सरकारी दमन और अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की शक्ति देता है। यह लोकतंत्र की आत्मा और न्याय की ढाल है।
1. हैबियस कॉर्पस (Habeas Corpus)

अर्थ: "शरीर को उपस्थित करो"

उद्देश्य:यदि किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में रखा गया है, तो यह writ उसकी रिहाई के लिए दायर की जाती है।

यह writ पुलिस या किसी भी अन्य सरकारी एजेंसी द्वारा गैरकानूनी गिरफ्तारी के खिलाफ काम करती है।

2. मैंडेटस (Mandamus)

अर्थ: "आदेश देना"

उद्देश्य: यह writ किसी सरकारी अधिकारी, प्राधिकरण, या संस्था को उसका कानूनी कर्तव्य पूरा करने का आदेश देने के लिए होती है।

यदि कोई अधिकारी अपने वैधानिक कार्य करने में असफल हो रहा हो, तो यह writ उपयोगी होती है।

3. प्रोहिबिशन (Prohibition)

अर्थ: "रोक लगाना"

उद्देश्य:यह writ निचली अदालत या ट्रिब्यूनल को उस अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य करने से रोकने के लिए होती है।

High Court यह writ तब देता है जब कोई संस्था अपने अधिकारों से बाहर जाकर कोई कार्य कर रही हो।

4. सर्टियोरारी (Certiorari)

अर्थ: "रिकॉर्ड मंगवाना और निर्णय रद्द करना"

उद्देश्य:यह writ किसी निचली अदालत या ट्रिब्यूनल द्वारा दिए गए अवैध या अधिकार क्षेत्र से बाहर के निर्णय को निरस्त करने के लिए होती है।

इसमें High Court उस निर्णय को रद्द कर सकता है।

5. क्वो वारंटो (Quo Warranto)

अर्थ: "किस अधिकार से"

उद्देश्य:यह writ किसी व्यक्ति से यह पूछने के लिए होती है कि वह किस अधिकार से किसी सरकारी पद पर काबिज है।

यदि कोई व्यक्ति अवैध रूप से किसी पद पर बैठा है, तो यह writ उसे हटाने के लिए होती है।

⚠️ महत्वपूर्ण: Writs केवल तभी जारी की जा सकती हैं जब उत्तरदाता (जिसके खिलाफ रिट दायर की गई है)
  • कोई "State" (राज्य) हो या
  • कोई ऐसा व्यक्ति/संस्था हो जो "Public Duty" (सार्वजनिक कर्तव्य) निभा रहा हो।
  • 6. निष्कर्ष (Conclusion)

    High Court इन पाँच writs के माध्यम से सरकारी अधिकारियों के दुरुपयोग, निष्क्रियता, अधिकारों से बाहर जाकर कार्य करने जैसी स्थितियों पर न्यायिक नियंत्रण रखता है।


    July 27, 2025

    टॉर्ट में उद्देश्य और द्वेष का महत्व। जानिए क्या मंशा से अपराध बनता है या केवल कार्य से

    टॉर्ट में उद्देश्य और द्वेष
    1. प्रस्तावना (Introduction)

    टॉर्ट कानून में यह तय किया जाता है कि किसी व्यक्ति के कानूनी अधिकार का उल्लंघन हुआ या नहीं। लेकिन जब कोई व्यक्ति गलत काम जानबूझकर करता है, तब "उद्देश्य (Motive)" और "द्वेष (Malice)" जैसे शब्दों की भूमिका अहम हो जाती है।

    2. उद्देश्य और द्वेष का अर्थ

    उद्देश्य (Motive) का मतलब होता है — कोई व्यक्ति कोई काम क्यों कर रहा है। जबकि द्वेष (Malice) का अर्थ है — जानबूझकर, बुरी नीयत से हानि पहुँचाना।

    ➡️ लेकिन टॉर्ट कानून में सामान्यतः मंशा को महत्व नहीं दिया जाता। यदि कोई कार्य वैध है, तो बुरी मंशा होने पर भी वह गलत नहीं माना जाएगा।

    3. कानून में क्या ज्यादा जरूरी है?

    कानून यह देखता है:

    • क्या किसी व्यक्ति का कानूनी अधिकार टूटा है?
    • क्या उसे कानूनी नुकसान हुआ है?

    अगर हां, तो वह टॉर्ट कहलाता है — भले ही सामने वाले की मंशा अच्छी हो या बुरी।

    4. उदाहरणों से समझें
    • Bradford v. Pickles: प्रतिवादी ने जल आपूर्ति बाधित की, लेकिन कार्य कानूनी था — दोषी नहीं ठहराया गया।
    • Allen v. Flood: बुरी मंशा से नौकरी छुड़वाई गई, फिर भी दोषी नहीं माने गए।
    • Guive v. Swan: बैलून चालक ने किसी के बगीचे में उतर कर नुकसान किया — द्वेष नहीं था फिर भी टॉर्ट माना गया।
    5. अपवाद – जहाँ मंशा मायने रखती है

    ⚠️ महत्वपूर्ण: बुरी मंशा से किया गया वैध कार्य हमेशा टॉर्ट नहीं माना जाएगा।
    कुछ मामलों में उद्देश्य/द्वेष को महत्व दिया जाता है:

    • Malicious Prosecution (झूठा केस)
    • Conspiracy (षड्यंत्र)
    • Deceit / धोखा
    • Nuisance (जानबूझकर परेशान करना)

    Christie v. Davey में जानबूझकर शोर मचाकर परेशान करना टॉर्ट माना गया।

    6. निष्कर्ष (Conclusion)

    टॉर्ट का फोकस इस पर होता है कि क्या किसी का कानूनी अधिकार टूटा है। मंशा तब तक महत्वपूर्ण नहीं होती जब तक कानून खुद उसे न देखे।

    ➡️ अगर कार्य वैध है तो बुरी मंशा कोई फर्क नहीं डालती। और अगर कार्य अवैध है तो अच्छी मंशा भी आपको नहीं बचा सकती।

    July 26, 2025

    🔥 भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 5 (Section 5) – सरल हिंदी में व्याख्या:🔥

     



    🔷 धारा 5 – दंड का रूपांतर (Commutation of sentence)


    (मतलब – किसी सजा को कानून के तहत कम या बदला जा सकता है)



    ✅ क्या कहा गया है?


    सरकार को अधिकार है कि वह:


    > बिना अपराधी की सहमति लिए भी,

    किसी सजा को दूसरे प्रकार की सजा में बदल सकती है —

    जैसे मृत्युदंड को आजीवन कारावास में।




    👉 यह कार्य सरकार “भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023” की धारा 474 के अनुसार करेगी।


    ⚖️ “उपयुक्त सरकार” (Appropriate Government) कौन होगी?
    ✅ “उपयुक्त सरकार” (Appropriate Government) कौन होगी?


    1. यदि सजा मृत्युदंड है या

    अपराध ऐसे कानून से जुड़ा है जो केंद्र सरकार के अधिकार में आता है, तो

    ➤ केंद्र सरकार (Central Government) निर्णय लेगी।



    2. यदि अपराध ऐसा है जो राज्य सरकार के अधीन आता है, और अपराधी को सजा उस राज्य में दी गई है,

    ➤ तो राज्य सरकार (State Government) को यह अधिकार होगा।



    🔹 सरल उदाहरण:


    यदि किसी व्यक्ति को मृत्युदंड मिला है, तो सरकार उसे बदलकर आजीवन कारावास में बदल सकती है।


    यदि किसी को 10 साल की कड़ी कैद हुई है, तो उसे साधारण कैद में बदला जा सकता है।


    July 25, 2025

    अगर अपराध व्यक्तिगत प्रकृति का हो, तो उसे समाप्त किया जा सकता है।


     

    हाईकोर्ट का फैसला: आपसी समझौते पर FIR रद्द
    ⚖️ हाईकोर्ट का फैसला: आपसी समझौते पर FIR रद्द
    बॉम्बे हाईकोर्ट ने 498A, 377 और दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धाराओं के तहत दर्ज FIR को रद्द कर दिया क्योंकि पति-पत्नी में आपसी समझौता हो गया था और उन्होंने आपसी सहमति से तलाक ले लिया था।
    📁 मामला क्या था?
    - शिकायतकर्ता पत्नी ने पति और उसके परिवार वालों पर दहेज, अप्राकृतिक यौन संबंध और मानसिक उत्पीड़न का आरोप लगाया था।
    - FIR संख्या: 737/2023
    - धारा: 498A, 377 IPC, 3/4 Dowry Act
    🤝 आपसी समझौता क्यों हुआ?
    दोनों पक्षों ने Family Court में तलाक के लिए सहमति दी और एक समझौते के तहत सभी आरोपों को खत्म करने पर सहमति जताई।
    🧑‍⚖️ कोर्ट का क्या निर्णय था?
    - पत्नी खुद कोर्ट में उपस्थित हुई और कहा कि उसे FIR खत्म करने में कोई आपत्ति नहीं।
    - कोर्ट ने कहा कि यदि विवाद सुलझ गया है, तो Section 482 CrPC के तहत केस को खत्म किया जा सकता है।
    📚 सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला
    - Gian Singh v. State of Punjab (2012)
    - B.S. Joshi v. State of Haryana (2003)
    - Narinder Singh v. State of Punjab (2014)
    इन सभी में बताया गया कि आपसी समझौते के मामलों में, अगर अपराध व्यक्तिगत प्रकृति का हो, तो उसे समाप्त किया जा सकता है।
    📝 निष्कर्ष
    यह निर्णय बताता है कि यदि पति-पत्नी आपसी सहमति से अलग हो जाते हैं और विवाद समाप्त हो चुका हो, तो हाईकोर्ट को मुकदमा खत्म करने की अनुमति है। इससे दोनों पक्ष अपने जीवन में आगे बढ़ सकते हैं।
    July 22, 2025

     ⚖️  

    भारतीय साक्ष्य अधिनियम


    भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 106 (Section 106 of Indian Evidence Act) एक महत्वपूर्ण कानूनी प्रावधान है, जो ऐसे मामलों से संबंधित है जहाँ कोई विशेष तथ्य एक व्यक्ति के विशेष ज्ञान में है।



    📘 Section 106 - Burden of proving fact especially within knowledge


    When any fact is especially within the knowledge of any person, the burden of proving that fact is upon him.

    जब कोई विशेष तथ्य किसी विशेष व्यक्ति के व्यक्तिगत ज्ञान में हो, तो उस तथ्य को साबित करने का भार (बोझ) उसी व्यक्ति पर होता है।


    🔍 उदाहरण: अगर किसी महिला की मृत्यु उसके पति के साथ घर में हुई और केवल वही पति जानता है कि मौत कैसे हुई — तो यह तथ्य उसके विशेष ज्ञान में है।

    इसलिए पति पर यह भार है कि वह बताए कि मौत कैसे हुई।



    🧑‍⚖️ अभियोजन को हर बात साबित करने की जरूरत नहीं।

    2. न्यायालयों की व्याख्या (Judicial Interpretation)

    धारा 106 अभियोजन से साक्ष्य का पूरा.


    📌 

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा — "जब कोई घटना घर के अंदर होती है और सिर्फ आरोपी मौजूद होता है, तो वही स्पष्ट करेगा कि क्या हुआ। अभियोजन को हर बात साबित करने की जरूरत नहीं।"


    📌 धारा 106 अभियोजन से साक्ष्य का पूरा भार नहीं हटाती, बल्कि यह कहती है कि जहाँ कुछ तथ्य अभियोजन के लिए अप्राप्य हैं और आरोपी के ही ज्ञान में हैं, वहाँ आरोपी जवाबदेह होगा।

    Trimukh Maroti Kirkan v. State of Maharashtra (2006)




    यह प्रावधान न्यायालय को सच्चाई के निकट लाता है, ताकि अत्यधिक तकनीकीता के कारण न्याय बाधित न हो।

    July 22, 2025

    "क्या केवल शक के आधार पर सज़ा दी जा सकती है?"






     "क्या केवल शक के आधार पर सज़ा दी जा सकती है?" - J&K हाईकोर्ट का बड़ा फैसला |


    🔹  कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता, खासकर जब अभियोजन अपने केस की नींव ही सिद्ध न कर पाए।



    🔹 केस की पृष्ठभूमि 


    मामला है वर्ष 2002 का —

    👉जहां फारूक अहमद पर्रे की उसके घर में हत्या हो गई थी।

    👉आरोप लगे उसकी पत्नी गुलशाना और उसके प्रेमी शमीम पर, कि उन्होंने मिलकर मूसल से वार कर हत्या की।



    🔹 अभियोजन का दावा 


    👉FIR के अनुसार पत्नी ने प्रेमी को घर में घुसाया, और फिर मूसल से वार कर हत्या कर दी।

    👉पूरा केस परिस्थितिजन्य सबूतों (circumstantial evidence) पर आधारित था — कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं था।



    🔹अभियोजन की कमजोरियाँ 


    👉मृतक की बेटी की गवाही विरोधाभासी थी


    👉हत्या का हथियार मूसल रसोई में खुले में पड़ा मिला, छुपाया नहीं गया


    👉आरोपी की उपस्थिति साबित नहीं हुई


    👉प्रेमी के खिलाफ कोई पक्का सबूत नहीं था


    👉पत्नी के साथ उसके रिश्ते भी सिर्फ अनुमान पर आधारित थे




    🔹 धारा 106 का मुद्दा 


    👉अभियोजन ने कहा कि चूंकि पत्नी घर में थी, उसे बताना चाहिए कि हत्या कैसे हुई।

    लेकिन कोर्ट ने कहा:

    👉 "जब तक अभियोजन बुनियादी तथ्य सिद्ध नहीं करता, तब तक आरोपी से जवाब नहीं मांगा जा सकता।

    👉 धारा 106 अभियोजन की असफलता की भरपाई नहीं कर सकती।"




    🔹 अदालत का फैसला 


    👉कोर्ट ने कहा कि ये केस केवल अनुमान और संदेह पर आधारित था।

    👉कोई ठोस सबूत नहीं था, इसलिए दोनों आरोपियों को बरी कर दिया गया।





    "अभियोजन की कमजोरियाँ — कौन से बुनियादी तथ्य ज़रूरी थे?"



    🔍 1. हत्या की पुष्टि - Murder Proved or Not


    सबसे पहले — अभियोजन को ये सिद्ध करना जरूरी था कि

    👉वास्तव में मृतक की हत्या हुई है,और वो भी किसी सामान्य कारण से नहीं, बल्कि जान-बूझकर की गई हिंसक हत्या है।


     इसके लिए ज़रूरी थे:


    👉पोस्टमार्टम रिपोर्ट


    👉फोरेंसिक विश्लेषण


    👉मृत्यु का कारण स्पष्ट रूप से ‘हत्या’ साबित होना



    🏠 2. घटनास्थल पर कौन था – Presence at Crime Scene 


    दूसरा अहम बिंदु — हत्या के समय घर में कौन मौजूद था?

    क्या पत्नी अकेली थी?


    👉क्या प्रेमी वहां आया था?


    👉 अभियोजन को ये साबित करना चाहिए था कि:


    👉आरोपी घर में उपस्थित थे


    👉हत्या के समय कोई तीसरा व्यक्ति नहीं था


    👉ताले, खिड़की, दरवाज़े आदि से घुसपैठ नहीं हुई



    3. प्रेमी की उपस्थिति – Lover's Presence Proof 


    तीसरा बिंदु — प्रेमी (शमीम) वास्तव में घर में था या नहीं?


     इसके लिए ज़रूरी थे:


    👉कॉल डिटेल रिकॉर्ड (CDR)


    👉मोबाइल लोकेशन


    👉पड़ोसी या गवाह की गवाही


    👉CCTV फुटेज, अगर उपलब्ध हो



     4. संबंधों का प्रमाण – Relationship Proof 


    अभियोजन का दावा था कि पत्नी और प्रेमी में संबंध थे — लेकिन क्या उसका कोई ठोस प्रमाण था?


    ज़रूरी थे:


    👉कॉल रिकॉर्ड्स


    👉प्रेम-पत्र


    👉गवाह जो संबंधों के बारे में जानते हों


    👉कोई निजी चैट या सबूत



     5. हत्या के हथियार की पुष्टि – Weapon Link 


    👉मूसल से हत्या हुई, ऐसा कहा गया — लेकिन क्या साबित हुआ?


    👉 अभियोजन को यह साबित करना था:


    👉मूसल से ही चोट आई


    👉उस पर आरोपी के फिंगरप्रिंट या खून के धब्बे थे


    👉हथियार छिपाने की कोशिश की गई




    ⚖️ 6. हत्या का मकसद – Motive 


    👉आख़िर कारण क्या था?

    👉क्या पत्नी को पति से परेशानी थी?

    👉क्या संपत्ति, झगड़ा या कोई अन्य कारण था?

    👉 अभियोजन को स्पष्ट उद्देश्य (Motive) दिखाना था।


    July 20, 2025

    जमानत का आधार ! जब FIR और साक्ष्य में विरोध हो, तो कैसे रखें अपना पक्ष?

      


    जमानत का आधार कैसे बनता है?


    🔹 1. FIR में अस्पष्ट आरोप / अस्पष्ट भूमिका

     यदि FIR में अभियुक्त की भूमिका स्पष्ट नहीं है या केवल सामान्य/रूटीन भाषा में नाम जोड़ा गया है, तो यह जमानत के लिए मजबूत आधार हो सकता है।




    🔹 2. अभियुक्त के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं

    यदि घटना में अभियुक्त की संलिप्तता को प्रमाणित करने वाले कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct Evidence) नहीं हैं — जैसे CCTV, गवाह, मोबाइल लोकेशन आदि — तो यह जमानत का मजबूत आधार होता है।


    🔹 3. सह-आरोपी को जमानत मिल चुकी हो

     यदि सह-आरोपी को पहले ही जमानत मिल चुकी है, और अभियुक्त की भूमिका भी उतनी ही संदिग्ध है, तो समानता का लाभ मिल सकता है।


    🔹 4. जाँच अभी प्रारंभिक अवस्था में है और गिरफ्तारी जरूरी नहीं

     जब जाँच में अब तक कोई ठोस तथ्य नहीं आया है, तो संदेहपूर्ण आधार पर जमानत देना उचित माना जाता है।




    🔹 5. FIR और मेडिकल रिपोर्ट में विरोधाभास हो

    अगर पीड़ित के बयान और मेडिकल साक्ष्य/गवाहियों में अंतर है, तो मामला संदेहपूर्ण मा

    ना जाएगा — और अभियुक्त को जमानत का लाभ मिल सकता है।



    🔹 6. यदि अभियुक्त की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है

    पहली बार अपराध में लिप्त व्यक्ति को कठोर दृष्टिकोण से नहीं देखा जाता।


    🔹 7. यदि अभियुक्त महिला, वृद्ध, या बीमार है

    सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णयों में कहा गया है कि:

    महिला, गर्भवती, वृद्ध या बीमार अभियुक्त को जेल में रखना अत्यधिक कठोरता हो सकती है, इसलिए जमानत देना उपयुक्त होगा।




    July 19, 2025

    Sessions Trial की प्रक्रिया


     

    ⚖️ Sessions Trial की प्रक्रिया


    🔹 1. Opening of the Case (मुकदमे की शुरुआत)


    BNSS (2023): Section 248/ CrPC (1973): Section 225


    Sessions Court में ट्रायल की शुरुआत लोक अभियोजक (Public Prosecutor) द्वारा केस प्रस्तुत करने से होती है।

    👉 अभियोजन पक्ष अदालत को संक्षेप में यह बताता है कि अभियुक्त के खिलाफ क्या आरोप हैं और कौन से सबूत दिए जाएंगे।



    🔹 2. Framing of Charges (आरोप तय करना)


    BNSS: Section 251/ CrPC: Section 228


    अदालत, प्रारंभिक कार्यवाही (Committal Proceedings) के दौरान प्रस्तुत सामग्री की समीक्षा करने के बाद स्पष्ट आरोप तय करती है।

    👉 यदि कोई स्पष्ट मामला बनता है तो अदालत अभियुक्त के खिलाफ फॉर्मल चार्जेस फ्रेम करती है।



    🔹 3. Recording of Evidence (साक्ष्यों की रिकॉर्डिंग)


    BNSS: Section 253/ CrPC: Section 230


    अभियोजन पक्ष (Prosecution) अपने गवाहों और साक्ष्यों को अदालत के समक्ष प्रस्तुत करता है।

    👉 इन साक्ष्यों को रिकॉर्ड किया जाता है और इन पर बचाव पक्ष द्वारा जिरह की जाती है।



    🔹 4. Defense Evidence (बचाव पक्ष की साक्ष्य प्रस्तुति)


    BNSS: Section 256/ CrPC: Section 233


    अभियुक्त को यह अधिकार होता है कि वह अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करे और अभियोजन पक्ष के गवाहों की जिरह (Cross-Examination) करे।

    👉 अदालत अभियुक्त को अपने पक्ष में गवाह बुलाने की अनुमति देती है।



    🔹 5. Judgment (निर्णय)


    BNSS: Section 258/ CrPC: Section 235


    सभी साक्ष्यों और दलीलों को सुनने के बाद सेशन कोर्ट अपना निर्णय (Verdict) देता है।

    👉 यह निर्णय अभियुक्त की दोषसिद्धि या दोषमुक्ति से संबंधित होता है।


    July 17, 2025

    "भारतीय न्याय संहिता की धारा 10: संदेह में सजा का सिद्धांत"

     


      जब अपराध तय न हो, तो कौन सी सजा मिलेगी? 



    भारत में न्याय व्यवस्था का आधार केवल सजा देना नहीं, बल्कि न्यायसंगत सजा देना है।

    इसी सिद्धांत को मजबूती देती है भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 10, जो बताती है कि यदि एक व्यक्ति पर एक से अधिक अपराधों का संदेह हो लेकिन यह तय न हो पाए कि उसने कौन सा अपराध किया है, तो उसे सबसे कम सजा वाले अपराध की सजा दी जाएगी।



    विधिक प्रावधान (Legal Provision – Section 10 BNS, 2023):


    "जहां किसी व्यक्ति को अनेक अपराधों में से किसी एक का दोषी माना जाता है लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि वह कौन-सा है, और इन सभी अपराधों की सजाएं अलग-अलग हैं, तो उस व्यक्ति को उस अपराध की सजा दी जाएगी जिसकी सजा सबसे कम है


    🟨 उदाहरण से समझें 


    मान लीजिए राजेश पर तीन आरोप हैं:


    1. चोरी – 3 साल की सजा



    2. धोखाधड़ी – 5 साल की सजा



    3. आपराधिक विश्वास भंग – 7 साल की सजा




    लेकिन यह साबित नहीं हो पाया कि राजेश ने इनमें से कौन-सा अपराध किया,

    फिर भी यह स्पष्ट है कि राजेश ने इन तीनों में से कोई एक अपराध अवश्य किया है।

    तो ऐसी स्थिति में उसे सिर्फ चोरी (3 साल) की सजा दी जाएगी, क्योंकि वह सबसे कम दंडनीय अपराध है।



    🟥 उद्देश्य और महत्त्व (Purpose and Importance):


    यह धारा "संशय का लाभ आरोपी को" (Benefit of Doubt) सिद्धांत पर आधारित है।


    न्यायिक सिद्धांत कहता है: “सौ अपराधी छूट जाएं, पर एक निर्दोष को सजा न हो।”


    धारा 10 कठोरता नहीं, संतुलित और न्यायिक दंड की ओर संकेत करती है।




    🟪 निष्कर्ष (Conclusion):


    धारा 10 यह सुनिश्चित करती है कि सिर्फ संदेह के आधार पर किसी को कठोर दंड न मिले।

    यह न्याय और दया के बीच संतुलन का उदाहरण है और भारतीय न्याय प्रणाली के मानवीय दृष्टिकोण को उजागर करती है।