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July 20, 2025

जमानत का आधार ! जब FIR और साक्ष्य में विरोध हो, तो कैसे रखें अपना पक्ष?

  


जमानत का आधार कैसे बनता है?


🔹 1. FIR में अस्पष्ट आरोप / अस्पष्ट भूमिका

 यदि FIR में अभियुक्त की भूमिका स्पष्ट नहीं है या केवल सामान्य/रूटीन भाषा में नाम जोड़ा गया है, तो यह जमानत के लिए मजबूत आधार हो सकता है।




🔹 2. अभियुक्त के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं

यदि घटना में अभियुक्त की संलिप्तता को प्रमाणित करने वाले कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct Evidence) नहीं हैं — जैसे CCTV, गवाह, मोबाइल लोकेशन आदि — तो यह जमानत का मजबूत आधार होता है।


🔹 3. सह-आरोपी को जमानत मिल चुकी हो

 यदि सह-आरोपी को पहले ही जमानत मिल चुकी है, और अभियुक्त की भूमिका भी उतनी ही संदिग्ध है, तो समानता का लाभ मिल सकता है।


🔹 4. जाँच अभी प्रारंभिक अवस्था में है और गिरफ्तारी जरूरी नहीं

 जब जाँच में अब तक कोई ठोस तथ्य नहीं आया है, तो संदेहपूर्ण आधार पर जमानत देना उचित माना जाता है।




🔹 5. FIR और मेडिकल रिपोर्ट में विरोधाभास हो

अगर पीड़ित के बयान और मेडिकल साक्ष्य/गवाहियों में अंतर है, तो मामला संदेहपूर्ण मा

ना जाएगा — और अभियुक्त को जमानत का लाभ मिल सकता है।



🔹 6. यदि अभियुक्त की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है

पहली बार अपराध में लिप्त व्यक्ति को कठोर दृष्टिकोण से नहीं देखा जाता।


🔹 7. यदि अभियुक्त महिला, वृद्ध, या बीमार है

सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णयों में कहा गया है कि:

महिला, गर्भवती, वृद्ध या बीमार अभियुक्त को जेल में रखना अत्यधिक कठोरता हो सकती है, इसलिए जमानत देना उपयुक्त होगा।




July 19, 2025

Sessions Trial की प्रक्रिया


 

⚖️ Sessions Trial की प्रक्रिया


🔹 1. Opening of the Case (मुकदमे की शुरुआत)


BNSS (2023): Section 248/ CrPC (1973): Section 225


Sessions Court में ट्रायल की शुरुआत लोक अभियोजक (Public Prosecutor) द्वारा केस प्रस्तुत करने से होती है।

👉 अभियोजन पक्ष अदालत को संक्षेप में यह बताता है कि अभियुक्त के खिलाफ क्या आरोप हैं और कौन से सबूत दिए जाएंगे।



🔹 2. Framing of Charges (आरोप तय करना)


BNSS: Section 251/ CrPC: Section 228


अदालत, प्रारंभिक कार्यवाही (Committal Proceedings) के दौरान प्रस्तुत सामग्री की समीक्षा करने के बाद स्पष्ट आरोप तय करती है।

👉 यदि कोई स्पष्ट मामला बनता है तो अदालत अभियुक्त के खिलाफ फॉर्मल चार्जेस फ्रेम करती है।



🔹 3. Recording of Evidence (साक्ष्यों की रिकॉर्डिंग)


BNSS: Section 253/ CrPC: Section 230


अभियोजन पक्ष (Prosecution) अपने गवाहों और साक्ष्यों को अदालत के समक्ष प्रस्तुत करता है।

👉 इन साक्ष्यों को रिकॉर्ड किया जाता है और इन पर बचाव पक्ष द्वारा जिरह की जाती है।



🔹 4. Defense Evidence (बचाव पक्ष की साक्ष्य प्रस्तुति)


BNSS: Section 256/ CrPC: Section 233


अभियुक्त को यह अधिकार होता है कि वह अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करे और अभियोजन पक्ष के गवाहों की जिरह (Cross-Examination) करे।

👉 अदालत अभियुक्त को अपने पक्ष में गवाह बुलाने की अनुमति देती है।



🔹 5. Judgment (निर्णय)


BNSS: Section 258/ CrPC: Section 235


सभी साक्ष्यों और दलीलों को सुनने के बाद सेशन कोर्ट अपना निर्णय (Verdict) देता है।

👉 यह निर्णय अभियुक्त की दोषसिद्धि या दोषमुक्ति से संबंधित होता है।


May 03, 2025

अपने साक्ष्य को कोर्ट में पेश कैसे करें? जानिए अदालत की प्रक्रिया (धारा 94 BNSS / धारा 91 CrPC)

यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि किसी दस्तावेज़ या अन्य वस्तु की पेशी विचारण या अन्य कार्यवाही के लिए आवश्यक है, तो वह व्यक्ति को समन या आदेश के माध्यम से ऐसे साक्ष्य को पेश करने का निर्देश दे सकता है।  धारा 94 BNSS / धारा 91 CrPC





इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य (Electronic Evidence) 




1. ईमेल (Emails)

जैसे – किसी अपराध से संबंधित बातचीत या धमकी भरे मेल।



2. व्हाट्सएप / चैट मैसेज (Chat Messages)

जैसे – व्हाट्सएप, टेलीग्राम, फेसबुक मैसेंजर आदि पर की गई बातचीत।



3. सीसीटीवी फुटेज (CCTV Footage)

जैसे – किसी अपराध स्थल की रिकॉर्डिंग।



4. फोन रिकॉर्डिंग / कॉल रिकॉर्ड (Call Records / Recordings)

जैसे – आपराधिक योजना की बातचीत।



5. डिजिटल दस्तावेज (Digital Documents)

जैसे – PDF, Word फाइल, डिजिटल अनुबंध (e-contracts) आदि।



6. मोबाइल डेटा (Mobile Data)

जैसे – लोकेशन हिस्ट्री, ब्राउज़िंग हिस्ट्री, ऐप लॉग्स।



7. सोशल मीडिया पोस्ट (Social Media Posts)

जैसे – फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर आदि पर डाली गई पोस्ट्स या कमेंट्स।



8. हार्ड डिस्क / पेन ड्राइव / लैपटॉप से प्राप्त डेटा

जैसे – फर्जी दस्तावेज, नकली पहचान पत्र, आपत्तिजनक सामग्री।



9. बैंकिंग ट्रांजेक्शन / ऑनलाइन पेमेंट रिकॉर्ड्स

जैसे – UPI, NEFT, RTGS आदि से जुड़ी डिजिटल ट्रांजैक्शन हिस्ट्री।



10. सर्वर लॉग्स / वेबसाइट लॉग्स

जैसे – किसी वेबसाइट पर लॉगिन/एक्टिविटी रिकॉर्ड।





Document Evidence (दस्तावेजी साक्ष्य) 

ऐसे दस्तावेज जो किसी तथ्य की पुष्टि या खंडन करने में न्यायालय की सहायता करते हैं।


1. लिखित अनुबंध (Written Contracts)

जैसे – किरायानामा, बिक्री-पत्र, विवाह अनुबंध।



2. आधिकारिक रजिस्टर (Official Records)

जैसे – भूमि रजिस्ट्रेशन, मृत्यु या जन्म प्रमाण पत्र, नगर पालिका के रिकॉर्ड।



3. पहचान दस्तावेज (Identity Documents)

जैसे – आधार कार्ड, पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस।



4. हस्तलिखित पत्र / आवेदन (Handwritten Letters / Applications)

जैसे – धमकी भरे पत्र, आत्महत्या नोट।



5. फोटोकॉपी या स्कैन की गई प्रतियां (Photocopies or Scanned Copies)

(यदि मूल उपलब्ध न हो और साक्ष्य अधिनियम के अनुसार स्वीकार्य हो)



6. बही-खाते / लेन-देन रजिस्टर (Ledger or Account Books)

जैसे – व्यापारिक खाता-बही या उधारी का रिकॉर्ड।



7. चिकित्सा रिपोर्ट / मेडिकल दस्तावेज (Medical Reports)

जैसे – पोस्टमार्टम रिपोर्ट, चोट की रिपोर्ट।



8. सरकारी आदेश / अधिसूचना (Government Orders / Notifications)

जैसे – नियुक्ति पत्र, निलंबन आदेश, अधिसूचना।



9. न्यायालय के दस्तावेज (Court Records)

जैसे – एफआईआर, चार्जशीट, जमानत आदेश।





अपवाद:

⚡ यह धारा ऐसे व्यक्ति पर लागू नहीं होती जो अभियुक्त है, अर्थात आरोपी को स्वयं को फंसाने वाले दस्तावेज़ लाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता (Article 20(3) of Constitution – आत्म-साक्षी न बनने का अधिकार)।



⚡ धारा 91 CrPC / धारा 94 BNSS का उपयोग अभियुक्त को अपने खिलाफ साक्ष्य लाने के लिए बाध्य करने हेतु नहीं किया जा सकता। यह संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन होगा। State of Gujarat v. Shyamlal Mohanlal Choksi (1965 AIR 1251, SC)


न्यायालय ने व्याख्या दी:

"गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा"   आरोपी को कोई भी ऐसा दस्तावेज पेश करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता जिससे वह स्वयं अपराधी सिद्ध हो।  Kathi Kalu Oghad Case (AIR 1961 SC 1808)




April 23, 2025

क्रिमिनल केस में बरी होने का मतलब यह नहीं कि मृत महिला की मां को दहेज का सामान नहीं लौटाया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

  सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि अगर पति या ससुराल पक्ष को दहेज प्रताड़ना के मामले में बरी कर दिया गया है, तब भी मृत महिला की मां (माइके पक्ष) को, जो कि उसकी प्राकृतिक वारिस (Natural Heir) है, दहेज के सामान की वापसी का अधिकार बना रहता है।



सुप्रीम कोर्ट का निर्णय "Nirmala Chauhan बनाम उत्तर प्रदेश राज्य"  मामले से संबंधित है। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि किसी आरोपी को दहेज प्रताड़ना के आपराधिक मामले में बरी कर दिया गया है, तो भी मृत महिला की मां, जो उसकी प्राकृतिक उत्तराधिकारी है, को दहेज के सामान की वापसी का अधिकार है।






  कानूनी संदर्भ:  

धारा 6, दहेज निषेध अधिनियम, 1961: दहेज महिला की संपत्ति मानी जाती है।


भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम: माता भी पुत्री की मृत्यु के बाद उसकी उत्तराधिकारी हो सकती है।


  मामला संक्षेप में:    


⚡एक महिला की शादी के बाद कुछ समय में उसकी मृत्यु हो गई।


⚡महिला की मां ने दहेज के सामान की वापसी के लिए याचिका दाखिल की।


⚡निचली अदालतों ने कहा कि पति को क्रिमिनल केस में बरी कर दिया गया है, इसलिए दहेज के सामान की वापसी नहीं की जा सकती।


⚡सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम व उत्तराधिकार कानून के अनुसार, मां एक कानूनी उत्तराधिकारी है और दहेज का सामान लौटाया जाना चाहिए।








April 22, 2025

"Bhajan Lal केस की 7 कसौटियाँ: FIR Quash करने के आधार"

 सुप्रीम कोर्ट ने State of Haryana v. Bhajan Lal, 1992 Supp (1) SCC 335 के ऐतिहासिक फैसले में 7 Grounds  निर्धारित किए हैं, जिनमें कोर्ट FIR को रद्द (quash) कर सकती है, ताकि निर्दोष व्यक्ति को बेवजह फंसाया न जाए और न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो।




FIR रद्द करने की 7 आधार ग्राउंड (Bhajan Lal Guidelines):


1. कोई अपराध बनता ही नहीं (No Offence Disclosed)

 अगर FIR में दर्ज तथ्यों को पूर्ण रूप से मान भी लिया जाए, तो भी कोई आपराधिक अपराध बनता ही नहीं।


उदाहरण:

केवल पैसे नहीं लौटाने को “धोखाधड़ी” कह देना — बिना आपराधिक मंशा के।


2. FIR में कथन असत्य या काल्पनिक हों (FIR is Absurd or Inherently Improbable)

दर्ज बातें इतनी असंभव या अविश्वसनीय हों कि उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता।




3. स्पष्ट रूप से सिविल विवाद हो (Civil Dispute Given Criminal Color)

 कोई मामला पूरी तरह सिविल प्रकृति का हो, लेकिन उसे आपराधिक रूप देने का प्रयास किया गया हो।


उदाहरण:

ऋण नहीं चुकाने पर IPC की धारा 420 (धोखाधड़ी) लगाना।


4. कानूनी बाधा हो (Legal Bar)

 कानून या पूर्व आदेश के तहत ऐसा कोई प्रतिबंध हो जिससे जांच या मुकदमा कानूनी रूप से चल ही नहीं सकता।



उदाहरण:

पूर्व में समझौता हो चुका है या कोर्ट ने पहले ही रोक लगा दी हो।



5. जानबूझकर दुर्भावनापूर्ण शिकायत (Malicious Prosecution)

 जब शिकायतकर्ता ने दुर्भावना या प्रतिशोध की भावना से झूठी FIR दर्ज कराई हो।




6. कोई साक्ष्य न हो, केवल आरोप हों (No Evidence, Only Allegations)

 जब FIR में कोई भी ठोस सबूत या तथ्यों का आधार न हो, सिर्फ भावनात्मक या सामान्य आरोप हों।



7. न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग (Abuse of Process of Law)

 जब प्राथमिकी या मुकदमा केवल मानसिक दबाव बनाने, प्रतिशोध लेने या उत्पीड़न के लिए किया गया हो।




April 15, 2025

"सिर्फ Clues से कैसे होता है Crime साबित?"

 



 "अगर गवाह नहीं, तो क्या अपराधी छूट जाएगा? "

नहीं! सुप्रीम कोर्ट के 5 सिद्धांत बताते हैं कि केवल ‘परिस्थितियाँ’ भी अपराध साबित कर सकती हैं – अगर वो जुड़ी हुई हों, मजबूत हों और संदेह से परे हों।"



परिस्थितिजन्य साक्ष्य क्या है? (What is Circumstantial Evidence?)


परिस्थितिजन्य साक्ष्य ऐसे साक्ष्य होते हैं जो अपराध को प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखाते, लेकिन ऐसी परिस्थितियाँ प्रस्तुत करते हैं जिनसे अपराध का संकेत या निष्कर्ष निकलता है।


परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence) को वैध और भरोसेमंद मानने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने केस Sharad Birdhichand Sarda v. State of Maharashtra (1984) में 5 महत्वपूर्ण सिद्धांत (Five Golden Principles) निर्धारित किए हैं, जिन्हें “Panch Sutra” भी कहा जाता है:



परिस्थितिजन्य साक्ष्य के 5 सिद्धांत – Supreme Court द्वारा:


1. सभी परिस्थितियाँ पूरी तरह से स्थापित होनी चाहिए।

केवल संदेह या अनुमान के आधार पर नहीं, बल्कि ठोस प्रमाणों से हर कड़ी को साबित करना ज़रूरी है।



2. परिस्थितियाँ केवल एक ही निष्कर्ष की ओर इशारा करें – कि अपराध आरोपी ने ही किया है।

अगर कोई दूसरी संभावित व्याख्या हो सकती है, तो आरोपी को लाभ मिलेगा।



3. सभी परिस्थितियाँ एक-दूसरे से इस तरह जुड़ी हों कि एक पूर्ण कहानी प्रस्तुत करें।

कोई भी “कड़ी” कमजोर या टूटी नहीं होनी चाहिए।




4. परिस्थितियाँ इतनी मजबूत हों कि आरोपी के दोष के अलावा कोई दूसरा निष्कर्ष संभव न हो।

 यानी संदेह से परे (Beyond Reasonable Doubt) दोष साबित हो।




5. सभी परिस्थितियाँ एक साथ मिलकर ऐसा तर्कसंगत और सुनिश्चित निष्कर्ष प्रस्तुत करें कि आरोपी ही दोषी है।


> केवल संदेह या अनुमान पर्याप्त नहीं है।




न्यायालय का दृष्टिकोण:


अगर ये 5 सिद्धांत पूरे नहीं होते, तो परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर आरोपी को सजा नहीं दी जा सकती।







April 14, 2025

लोक सेवकों के विरुद्ध अभियोजन की स्वीकृति

धारा 198 (BNSS)/ 197 (CrPC) – कुछ लोक सेवकों के विरुद्ध अभियोजन की स्वीकृति आवश्यक



 यदि कोई न्यायिक अधिकारी, या कोई ऐसा लोक सेवक जो भारत सरकार, राज्य सरकार, या केंद्रशासित प्रदेश के अधीन कार्य करता है—जिसने अपने पद के कर्तव्यों का पालन करते हुए या रंग-रूप में कोई कार्य किया हो—उसके विरुद्ध किसी अपराध के लिए अदालत में संज्ञान तभी लिया जा सकता है जब:

भारत सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त हो (यदि वह केंद्र सरकार के अधीन है)।


राज्य सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त हो (यदि वह राज्य सरकार के अधीन है)।



उद्देश्य:


इसका उद्देश्य यह है कि लोक सेवकों को उनके पद के कार्यों के निष्पादन में अनावश्यक और दुर्भावनापूर्ण अभियोजन से संरक्षण प्रदान किया जाए।


मुख्य बिंदु:

🪄यह सुरक्षा उन कार्यों तक सीमित है, जो उन्होंने अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किए हों।


🪄निजी कार्यों के लिए यह सुरक्षा प्रभावी नहीं होती।


🪄अदालत बिना अनुमति के संज्ञान नहीं ले सकती।



   इन परिस्थितियों में धारा 197 (CrPC) / 198 (BNSS) के तहत सरकार की अनुमति नहीं चाहिए: 


1. अगर पुलिस ने ड्यूटी की आड़ में निजी बदले की भावना से अपराध किया हो।

*एस.के. मिस्त्री बनाम बिहार राज्य (2001) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि पुलिस अधिकारी का कार्य ड्यूटी से संबंधित नहीं है, तो उसे धारा 197 CrPC /198 BNSS की सुरक्षा नहीं मिलेगी।*



2. अगर अपराध बहुत गंभीर है, जैसे हत्या, बलात्कार, फर्जी मुठभेड़ या यातना।


*डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी बनाम मनमोहन सिंह (2012) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार जैसे गंभीर अपराधों में सरकारी अनुमति की आवश्यकता नहीं है।*



3. अगर पुलिस ने ड्यूटी की सीमा से बाहर जाकर अपराध किया हो।

*प्रेमचंद बनाम पंजाब राज्य (1958) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर कोई पुलिस अधिकारी ड्यूटी से बाहर जाकर अवैध कार्य करता है, तो उसे सरकारी अनुमति की जरूरत नहीं।*



4. अगर मामला भ्रष्टाचार से संबंधित है।

*एन. कलाइसेल्वी बनाम तमिलनाडु सरकार (2019) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार के मामलों में धारा 197 CrPC की सुरक्षा नहीं मिलेगी।*




5. अगर कोर्ट खुद संज्ञान लेकर केस दर्ज करने का आदेश दे।

*सीबीआई बनाम जनार्दनन (1998) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि न्यायालय प्रथम दृष्टया (Prima Facie) मानता है कि अपराध हुआ है, तो वह सरकार की अनुमति के बिना भी केस दर्ज करने का निर्देश दे सकता है।*



इसका मतलब यह है कि पुलिस ड्यूटी के दौरान किया गया हर अपराध धारा 197 CrPC / 198 BNSS की सुरक्षा के अंतर्गत नहीं आएगा। यदि अपराध व्यक्तिगत, भ्रष्टाचार या गंभीर प्रकृति का है, तो सरकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती और पुलिस अधिकारी पर सीधे मुकदमा दर्ज किया जा सकता है।


   सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दिशा-निर्देश (Guidelines Issued by Supreme Court) 


सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस हिरासत में होने वाले दुर्व्यवहार को रोकने के लिए 11 महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किए, जो कि आज भी लागू हैं:


(i) गिरफ्तारी के समय पुलिस को निम्नलिखित कदम उठाने होंगे:


1. गिरफ्तारी के दौरान पुलिस अधिकारी का नाम और पदनाम साफ-साफ बताया जाए।

2. गिरफ्तार व्यक्ति का एक गिरफ्तारी मेमो (Arrest Memo) तैयार किया जाए, जिसमें गिरफ्तारी का समय, तारीख और स्थान लिखा जाए।

3. गिरफ्तार व्यक्ति के एक परिवार के सदस्य या दोस्त को तुरंत गिरफ्तारी की सूचना दी जाए।

4. गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाए।




(ii) हिरासत में यातना रोकने के लिए:

5. गिरफ्तार व्यक्ति के शरीर पर चोट या शारीरिक स्थिति का मेडिकल जांच (Medical Examination) हर 48 घंटे में होना चाहिए।

6. गिरफ्तार व्यक्ति के लिए कानूनी सहायता (Legal Aid) उपलब्ध कराई जाए।

7. गिरफ्तारी के समय व्यक्ति को यह बताया जाए कि उसे क्यों गिरफ्तार किया गया है और उसके अधिकार क्या हैं।




(iii) पुलिस थानों में पारदर्शिता के लिए:

8. हर पुलिस थाने में गिरफ्तारी की जानकारी सार्वजनिक रूप से दर्ज की जाए।

9. हर जिले और राज्य में मानवाधिकार आयोग या अन्य स्वतंत्र संस्था द्वारा पुलिस थानों का निरीक्षण किया जाए।




(iv) कोर्ट का आदेश:

10. अगर पुलिस इन नियमों का पालन नहीं करती है, तो यह अवमानना (Contempt of Court) मानी जाएगी।

11. पीड़ित को मुआवजा देने का प्रावधान किया जाए।


 D.K. Basu बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) का फैसला भारत में हिरासत के दौरान मानवाधिकारों की रक्षा के लिए एक ऐतिहासिक निर्णय था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पुलिस हिरासत में यातना और मौतें असंवैधानिक हैं और यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती हैं। इस फैसले ने गिरफ्तारी की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और मानवाधिकारों के अनुकूल बनाने में अहम भूमिका निभाई।


 फर्जी मुकदमे बनाना या झूठे सबूत गढ़ना:

यदि कोई पुलिस अधिकारी जानबूझकर झूठे सबूत गढ़ता है (IPC धारा 193, 211), तो उसके खिलाफ सीधा मुकदमा दर्ज किया जा सकता है।


संबंधित केस: Shyam Sunder v. State of Rajasthan (1974) – झूठे मुकदमे बनाने के मामलों में सरकारी अनुमति की आवश्यकता नहीं।


April 10, 2025

विरोध याचिका (Protest Petition )

 विरोध याचिका 

(Protest Petition)



क्लोजर रिपोर्ट (FR) के खिलाफ विरोध याचिका (Protest Petition) भारतीय आपराधिक प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कानूनी प्रक्रिया है, जिसके तहत शिकायतकर्ता या पीड़ित पक्ष पुलिस द्वारा लगायी गई क्लोजर रिपोर्ट को चुनौती दे सकता है। यह प्रक्रिया मुख्य रूप से भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) / भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के प्रावधानों पर आधारित है। 


महत्वपूर्ण प्रावधान और उपबंध:


1.क्लोजर रिपोर्ट का आधार (BNSS धारा 189 / CrPC धारा 173):

पुलिस अधिकारी जांच के बाद यदि यह निष्कर्ष निकालता है कि किसी मामले में पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं या अपराध सिद्ध नहीं होता, तो वह मजिस्ट्रेट के समक्ष क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर सकता है। यह रिपोर्ट जांच को समाप्त करने का प्रस्ताव रखती है।


2.विरोध याचिका (protest petition) का अधिकार:

यदि शिकायतकर्ता या पीड़ित पक्ष पुलिस की क्लोजर रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं है, तो वह मजिस्ट्रेट के समक्ष विरोध याचिका दायर कर सकता है। यह याचिका पुलिस की जांच को अपर्याप्त या पक्षपातपूर्ण मानते हुए आगे की कार्रवाई की मांग करती है।यह प्रक्रिया शिकायतकर्ता को यह सुनिश्चित करने का अवसर देती है कि न्याय प्रक्रिया में उनकी बात सुनी जाए।


3.मजिस्ट्रेट के विकल्प (CrPC धारा 190 / BNSS धारा 210):

क्लोजर रिपोर्ट प्राप्त होने पर मजिस्ट्रेट के पास तीन मुख्य विकल्प होते हैं:

रिपोर्ट स्वीकार करना: यदि मजिस्ट्रेट सहमत होता है कि साक्ष्य अपर्याप्त हैं, तो वह क्लोजर रिपोर्ट को स्वीकार कर मामले को बंद कर सकता है।

विरोध याचिका पर संज्ञान लेना: मजिस्ट्रेट विरोध याचिका को शिकायत के रूप में मान सकता है और स्वयं संज्ञान लेकर मामले की सुनवाई शुरू कर सकता है (CrPC धारा 200-202)।

आगे जांच का आदेश: मजिस्ट्रेट पुलिस को मामले की और जांच करने का निर्देश दे सकता है (BNSS धारा 193(9))।



4.शिकायतकर्ता की सुनवाई का अधिकार:

विरोध याचिका दायर करने पर मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्ता को सुनने का अवसर देना होता है। यह सुनिश्चित करता है कि पीड़ित पक्ष अपनी आपत्तियां और साक्ष्य प्रस्तुत कर सके।


5.अग्रिम जांच का प्रावधान (BNSS धारा 193(9)):

यदि विरोध याचिका के आधार पर नए साक्ष्य या तथ्य सामने आते हैं, तो मजिस्ट्रेट पुलिस को अग्रिम जांच का आदेश दे सकता है। यह जांच 90 दिनों के भीतर पूरी करनी होती है, जिसे न्यायालय की अनुमति से बढ़ाया जा सकता है।


6.संवैधानिक और कानूनी संरक्षण:

यह प्रक्रिया भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करने का एक हिस्सा है। यह पीड़ित को अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार देती है।



 संबंधित केस:


1. Abhinandan Jha vs Dinesh Mishra [(1967) AIR 1345]


निर्णय:

🪄पुलिस की क्लोजर रिपोर्ट के बावजूद मजिस्ट्रेट जांच जारी रखने या समन जारी करने के लिए स्वतंत्र है।



Bhagwant Singh vs Commissioner of Police & Anr. (1985) 2 SCC 537


 निर्णय:

🪄जब पुलिस ‘क्लोजर रिपोर्ट’ (Final Report under Section 173 CrPC) फाइल करती है और मजिस्ट्रेट उसे स्वीकार करना चाहता है, तो शिकायतकर्ता को सुनवाई का अवसर देना अनिवार्य है।


🪄Protest Petition अगर दाखिल हुई है, तो उसे बिना सुनवाई के रद्द करना न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ होगा।



Subramanian Swamy vs Manmohan Singh & Anr. (2012) 3 SCC 64


निर्णय:

🪄Protest Petition को केवल एक औपचारिक पत्र नहीं माना जा सकता। अगर उसमें पर्याप्त तथ्य और साक्ष्य हैं, तो मजिस्ट्रेट को मामले की न्यायिक जांच करनी चाहिए।



महत्व:

निष्पक्षता सुनिश्चित करना: विरोध याचिका पुलिस की एकतरफा कार्रवाई या लापरवाही को चुनौती देने का माध्यम है।

पीड़ित का सशक्तिकरण: यह पीड़ित पक्ष को यह अधिकार देता है कि वह अपनी शिकायत को बंद नहीं होने दे और मामले को आगे बढ़ाने की मांग कर सके।

न्यायिक नियंत्रण: मजिस्ट्रेट को जांच प्रक्रिया पर निगरानी रखने और आवश्यकता पड़ने पर हस्तक्षेप करने की शक्ति मिलती है।