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लोक सेवकों के विरुद्ध अभियोजन की स्वीकृति

धारा 198 (BNSS)/ 197 (CrPC) – कुछ लोक सेवकों के विरुद्ध अभियोजन की स्वीकृति आवश्यक



 यदि कोई न्यायिक अधिकारी, या कोई ऐसा लोक सेवक जो भारत सरकार, राज्य सरकार, या केंद्रशासित प्रदेश के अधीन कार्य करता है—जिसने अपने पद के कर्तव्यों का पालन करते हुए या रंग-रूप में कोई कार्य किया हो—उसके विरुद्ध किसी अपराध के लिए अदालत में संज्ञान तभी लिया जा सकता है जब:

भारत सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त हो (यदि वह केंद्र सरकार के अधीन है)।


राज्य सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त हो (यदि वह राज्य सरकार के अधीन है)।



उद्देश्य:


इसका उद्देश्य यह है कि लोक सेवकों को उनके पद के कार्यों के निष्पादन में अनावश्यक और दुर्भावनापूर्ण अभियोजन से संरक्षण प्रदान किया जाए।


मुख्य बिंदु:

🪄यह सुरक्षा उन कार्यों तक सीमित है, जो उन्होंने अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किए हों।


🪄निजी कार्यों के लिए यह सुरक्षा प्रभावी नहीं होती।


🪄अदालत बिना अनुमति के संज्ञान नहीं ले सकती।



   इन परिस्थितियों में धारा 197 (CrPC) / 198 (BNSS) के तहत सरकार की अनुमति नहीं चाहिए: 


1. अगर पुलिस ने ड्यूटी की आड़ में निजी बदले की भावना से अपराध किया हो।

*एस.के. मिस्त्री बनाम बिहार राज्य (2001) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि पुलिस अधिकारी का कार्य ड्यूटी से संबंधित नहीं है, तो उसे धारा 197 CrPC /198 BNSS की सुरक्षा नहीं मिलेगी।*



2. अगर अपराध बहुत गंभीर है, जैसे हत्या, बलात्कार, फर्जी मुठभेड़ या यातना।


*डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी बनाम मनमोहन सिंह (2012) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार जैसे गंभीर अपराधों में सरकारी अनुमति की आवश्यकता नहीं है।*



3. अगर पुलिस ने ड्यूटी की सीमा से बाहर जाकर अपराध किया हो।

*प्रेमचंद बनाम पंजाब राज्य (1958) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर कोई पुलिस अधिकारी ड्यूटी से बाहर जाकर अवैध कार्य करता है, तो उसे सरकारी अनुमति की जरूरत नहीं।*



4. अगर मामला भ्रष्टाचार से संबंधित है।

*एन. कलाइसेल्वी बनाम तमिलनाडु सरकार (2019) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार के मामलों में धारा 197 CrPC की सुरक्षा नहीं मिलेगी।*




5. अगर कोर्ट खुद संज्ञान लेकर केस दर्ज करने का आदेश दे।

*सीबीआई बनाम जनार्दनन (1998) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि न्यायालय प्रथम दृष्टया (Prima Facie) मानता है कि अपराध हुआ है, तो वह सरकार की अनुमति के बिना भी केस दर्ज करने का निर्देश दे सकता है।*



इसका मतलब यह है कि पुलिस ड्यूटी के दौरान किया गया हर अपराध धारा 197 CrPC / 198 BNSS की सुरक्षा के अंतर्गत नहीं आएगा। यदि अपराध व्यक्तिगत, भ्रष्टाचार या गंभीर प्रकृति का है, तो सरकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती और पुलिस अधिकारी पर सीधे मुकदमा दर्ज किया जा सकता है।


   सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दिशा-निर्देश (Guidelines Issued by Supreme Court) 


सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस हिरासत में होने वाले दुर्व्यवहार को रोकने के लिए 11 महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किए, जो कि आज भी लागू हैं:


(i) गिरफ्तारी के समय पुलिस को निम्नलिखित कदम उठाने होंगे:


1. गिरफ्तारी के दौरान पुलिस अधिकारी का नाम और पदनाम साफ-साफ बताया जाए।

2. गिरफ्तार व्यक्ति का एक गिरफ्तारी मेमो (Arrest Memo) तैयार किया जाए, जिसमें गिरफ्तारी का समय, तारीख और स्थान लिखा जाए।

3. गिरफ्तार व्यक्ति के एक परिवार के सदस्य या दोस्त को तुरंत गिरफ्तारी की सूचना दी जाए।

4. गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाए।




(ii) हिरासत में यातना रोकने के लिए:

5. गिरफ्तार व्यक्ति के शरीर पर चोट या शारीरिक स्थिति का मेडिकल जांच (Medical Examination) हर 48 घंटे में होना चाहिए।

6. गिरफ्तार व्यक्ति के लिए कानूनी सहायता (Legal Aid) उपलब्ध कराई जाए।

7. गिरफ्तारी के समय व्यक्ति को यह बताया जाए कि उसे क्यों गिरफ्तार किया गया है और उसके अधिकार क्या हैं।




(iii) पुलिस थानों में पारदर्शिता के लिए:

8. हर पुलिस थाने में गिरफ्तारी की जानकारी सार्वजनिक रूप से दर्ज की जाए।

9. हर जिले और राज्य में मानवाधिकार आयोग या अन्य स्वतंत्र संस्था द्वारा पुलिस थानों का निरीक्षण किया जाए।




(iv) कोर्ट का आदेश:

10. अगर पुलिस इन नियमों का पालन नहीं करती है, तो यह अवमानना (Contempt of Court) मानी जाएगी।

11. पीड़ित को मुआवजा देने का प्रावधान किया जाए।


 D.K. Basu बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) का फैसला भारत में हिरासत के दौरान मानवाधिकारों की रक्षा के लिए एक ऐतिहासिक निर्णय था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पुलिस हिरासत में यातना और मौतें असंवैधानिक हैं और यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती हैं। इस फैसले ने गिरफ्तारी की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और मानवाधिकारों के अनुकूल बनाने में अहम भूमिका निभाई।


 फर्जी मुकदमे बनाना या झूठे सबूत गढ़ना:

यदि कोई पुलिस अधिकारी जानबूझकर झूठे सबूत गढ़ता है (IPC धारा 193, 211), तो उसके खिलाफ सीधा मुकदमा दर्ज किया जा सकता है।


संबंधित केस: Shyam Sunder v. State of Rajasthan (1974) – झूठे मुकदमे बनाने के मामलों में सरकारी अनुमति की आवश्यकता नहीं।