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"सुविधा का संतुलन" (Balance of Convenience)

 "सुविधा का संतुलन" (Balance of Convenience)   एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो मुख्यतः Code of Civil Procedure, 1908 (CPC) के तहत अंतरिम निषेधाज्ञा (Interim Injunction) देने के मामलों में प्रयोग होता है। 




Code of Civil Procedure, 1908 (CPC) में, Order 39 Rule 1 और Rule 2 के तहत "अस्थायी निषेधाज्ञा" (Temporary Injunction) का प्रावधान है।


इन नियमों के अनुसार, यदि वादी यह दिखा सकता है कि:

⚡ संपत्ति को खतरा है, बर्बादी हो सकती है, अपूरणीय क्षति हो सकती है, या मुकदमे के उद्देश्य विफल हो सकते हैं, तो अदालत अस्थायी निषेधाज्ञा जारी कर सकती है।


⚡ Balance of Convenience इन्हीं नियमों के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण मानदंड है, जिसे अदालत अस्थायी निषेधाज्ञा जारी करते समय ध्यान में रखती है।


जब कोई पक्ष अदालत से अस्थायी निषेधाज्ञा (Temporary Injunction) माँगता है (Order 39 Rules 1 और 2, CPC), तो अदालत  तीन मुख्य कारकों  पर विचार करती है:


1. Prima Facie Case — प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं।


2. Irreparable Injury — यदि राहत नहीं दी गई तो क्या अपूरणीय क्षति होगी?


3. Balance of Convenience — किस पक्ष के पक्ष में सुविधा का संतुलन है।



  सुविधा का संतुलन (Balance of Convenience) का मतलब होता है: 


⚡ यदि निषेधाज्ञा दी जाती है या नहीं दी जाती है, तो किस पक्ष को अधिक नुकसान या कठिनाई होगी?

⚡ अदालत उस पक्ष का समर्थन करती है, जिसे अधिक नुकसान होने की संभावना है अगर निषेधाज्ञा नहीं दी गई।



 सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख लैंडमार्क जजमेंट: 


 Dalpat Kumar v. Prahlad Singh, (1992) 1 SCC 719

“Irreparable injury does not mean that there must be no physical possibility of repairing the injury, but means that it must be a material injury which cannot be adequately remedied by damages.”


⚡अंतरिम निषेधाज्ञा देने के लिए तीन कारकों (Prima Facie Case, Irreparable Injury, Balance of Convenience) का संतुलित मूल्यांकन आवश्यक है।


👉 महज़ आशंका या अनुमान मात्र से निषेधाज्ञा नहीं दी जा सकती।

👉 निषेधाज्ञा कोई साधारण अधिकार नहीं है; यह न्यायालय का विवेकाधीन (discretionary) राहत है।